तन मन भूखा, जीवन रूखा!
पडा दुआरे तरस रहा है!!
ए श्रीष्टि के रचने वाले !
इसीलिए क्या मुझे रचा है!!
क्यों जाना दीया वसू - देवकी के!
दीया भाग्य न अपने जैसा!!
कंस राज की इस नगरी में!
न दीया सहारा यशोदा सा!!
था नही ज्ञान तुझको निर्दयी!
इस तन में उर्र और मन भी है!!
मन की भूख दबा भी लें!
पर उर्र की भूख का अंत नही है!!
तू है रखवाला जन-जन का!
पर भूल गया मुझ बालक को!!
अन्न, आँगन, ममता छिनी!
और छीन लिया मेरे पालक को!!
मजबूर पडा मृत्यु की गोद में!
दया से तेरी दूर रहा हूँ!!
क्या? भूखे मरने को ही जिया!
बस यही में तुझसे पूछ रहा हूँ!!
.......एहसास!
पडा दुआरे तरस रहा है!!
ए श्रीष्टि के रचने वाले !
इसीलिए क्या मुझे रचा है!!
क्यों जाना दीया वसू - देवकी के!
दीया भाग्य न अपने जैसा!!
कंस राज की इस नगरी में!
न दीया सहारा यशोदा सा!!
था नही ज्ञान तुझको निर्दयी!
इस तन में उर्र और मन भी है!!
मन की भूख दबा भी लें!
पर उर्र की भूख का अंत नही है!!
तू है रखवाला जन-जन का!
पर भूल गया मुझ बालक को!!
अन्न, आँगन, ममता छिनी!
और छीन लिया मेरे पालक को!!
मजबूर पडा मृत्यु की गोद में!
दया से तेरी दूर रहा हूँ!!
क्या? भूखे मरने को ही जिया!
बस यही में तुझसे पूछ रहा हूँ!!
.......एहसास!
1 टिप्पणी:
था नही ज्ञान तुझको निर्दयी!
इस तन में उर्र और मन भी है!!
मन की भूख दबा भी लें!
पर उर्र की भूख का अंत नही है!!
sunder rachna hai...
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